रविवार, 8 जून 2014

कुछ दर्द हैं वादियों के भी

     

       ( L.S. Bisht ) - मैदानों की उमस भरी गर्मी से बेदम हमे याद आने लगती हैं पहाड की रूमानी तस्वीर यानी खूबसूरत वादियां, हिमाच्छादित चोटियां और हरे-भरे ज़ंगल | चन्द दिनों के लिए ही सही, हम पहाड की इन खूबसूरत वादियों मे खो जाने का सपना लिए निकल पड्ते हैं | ऐसी ही हर साल सैलानियों की भीड वहां पहुंचती है और पहाड की वादियां देसी विदेशी सैलानियों के कह्कहों से गूंजने लगती हैं | 
     लेकिन रूमानी सपनों से अलग सच्चाई की जमीन पर खडे होकर देखें तो सपनों का यह पहाड अब बहुत बदल गया है | आसपास की वादियां धीरे धीरे अपना सौन्दर्य खो रही हैं | हरे भरे जंगल उजाड हो रहे हैं और साथ ही यहां के सांस्कृतिक परिवेश पर भी खतरे के बादल मंडराने लगे हैं |
     दर-असल पहाड की यह त्रासदी रही है कि उसकी पहचान हिल स्टेशन के रूप मे बनी | आजादी के पहले भी पहाड हिलस्टेशन थे | अंग्रेजों ने यहां की गर्मी से राहत पाने के लिए कई ठंडे सैरगाहों की खोज की | 1815 से औपनिवेशिक शासन के अंत तक लगभग 80 हिलस्टेशन बनाए | जो यूरोपीय आबादी और व्यापार के प्रमुख केन्द्र थे | जैसे दिल्ली के पास शिमला, मसूरी व नैनीताल, मुम्बई के पास पुणे, महाबलेश्वर और द्क्षिण मे उटकमंड आदि | यह हिलस्टेशन इस तरह से बसाए गए कि स्थानीय आबादी और साधनों पर उनका पूरा अधिकार हो |
     यही नही, इन लोगों ने मकानों, नदी-नालों व स्कूली क्षेत्रों का भी भूगोल ही बदल दिया | यही कारण है कि आज इतने वर्षों बाद भी यहां तमाम नामी पब्लिक स्कूल हैं |
     वस्तुत: आज जितने भी हिल स्टेशन हैं वे सभी अंग्रेजों के सैरगाह थे | परन्तु हिल स्टेशन बने इन पर्वतीय स्थलों के प्रति उनका नजरिया भोगवादी रहा | पहाड की ठंड व सौन्दर्य का भोग लगा उसे कूडेदान की तरह बेतरतीब छोड आना इन हिल स्टेशनों की नियती थी | लेकिन गौरतलब यह है कि आजादी के बाद भी यह नजरिया बहुत बदला नही है |
     पहले पहल अंग्रेजों की इस परंपरा को जारी रखने वाला एक छोटा सा उच्च वर्ग था लेकिन वक्त के साथ यहां आने वाले सैलानियों की संख्या बढ्ती गई | सरकारी नौकरी मे यात्रा भ्रमण की सुविधा का लाभ उठाने वाले बाबूओं से लेकर एअरकंडीशन डिब्बों मे ‘ सरकारी दौरे ‘ मे आने बाले ‘ साहबों ‘ के लिए गर्मियों मे यहां आना अब एक फ़ैशन सा बन गया है |
     पहाड को देखने वाली नजरें भी रोमांटिक रही हैं | यही कारण है कि आज भी पर्यटक चाहे वह किसी भी वर्ग का हो, एक खास नजर से पहाड को देखता है | वहां वह उस दुनिया को तलाशता है जो उसने सिनेमा के पर्दे या बडे घरों की दीवारों पर लगी पेटिंग मे देखा है |
     पहाड की हिमाच्छादित चोटियां और खूबसूरत वादियां उसे रोमांचित करती हैं | वह घोडों पर चढ कर गहरी घाटियों को देखता है, बहते हुए झरनों के साथ खेलता है और कैमरे मे पहाड को कैद करता है | हरे-भरे जंगलों मे हनीमून के एकान्त का सुख भोगता है | इस तरह हिल स्टेशन के रूप मे पहाड को भोग कर सैलानी वापस आ जाता है अपने मुकाम पर | वहां रह जाता है उसके अविवेक क्रियाकलापों का सबूत, रौंदी हुई फ़ूलों की घाटी, जहां तहां पडे डिब्बे व जूठन और शराब की खाली बोतलें |
     यही नही, चंद दिनों के लिए बसने वाली पर्यटकों की इस दुनिया का ही परिणाम है यहां के स्थानीय लोगों मे जी हुजूरी की प्रवत्ति बढती जा रही है | चंद पैसो के लिए अब यहां का वाशिन्दा मुस्कुराहट चिपकाए विनम्र मुद्रा मे खडा आने वाले सैलानियों का इंतजार करता है | तमाम जलालत भुगतने के बाद मिले चद रूपयों, शराब की बोतलों तथा बख्शीश या ‘ ईनाम-किताब ‘ को वह अपनी बडी उपलब्धी मानने लगा है |
     यही नही, पर्यटकों का स्वच्छंद व उन्मुक्त व्यवहार यहां की युवापीढी को आकर्षित करता है | परिणामस्वरूप हिलस्टेशन बने पहाड के छोटे शहरों मे वह सभी बुराईयां आने लगी हैं जो अब तक मैदानी शहरों तक सीमित थीं | पर्यट्कों की चकाचौंध अमीरी व ठाठ से सम्मोहित हो वह भी महानगरों मे आने को मचलने लगता है |
     गर्मियों मे सैरगाह बने पहाड की पीडा को देखना हो तो मसूरी, अल्मोडा या नैनीताल चले आइए लेकिन रोमाटिंक नजरों से देखने वाली आंखों से नही दिखेगी यह पीडा | अपने ‘ साब लोगों ‘ तथा हनीमून मनाने आए जोडों के लिए स्थान जुटाने की चिंता मे किस तरह स्वंय बेघर हो जाते हैं यहां के वाशिंदे | ऊंचे किराये पाने के लोभ मे किस तरह स्वंय कहीं अंधेरे कोने मे दुबक जाते है यह लोग | यह सब चन्द पैसों के लिए | एक तरह से इन शहरों मे स्थानीय लोगों का सामाजिक जीवन बुरी तरह से अस्त व्यस्त हो जाता है | सारी गतिविधियां अपने पर्यट्क मेहमानों को खुश करने तक सीमित हो जाती हैं | लेकिन विडंबना तो यह हैकि पहाड के सैलानी कस्बों व शहरों की इतनी बडी मानवीय त्रासदी पर्यट्न के आधुनिक ग्लैमर की मोटी पर्तों के अंदर से झांक तक नही पा रही |
     इसके साथ ही जैसे जैसे पहाड मे पर्यटन पनप रहा है वहां अपराधों की संख्या मे भी वृध्दि हो रही है | पर्यटन स्थलों मे चोरी, मारपीट, धोखाधडी की घटनाएं आम होती जा रही हैं | अक्सर पर्यट्कों के साथ शहरों से कुछ अपराधी तत्व भी आ जाते हैं जो न सिर्फ़ सैलानियों का अहित करते हैं वल्कि स्थानीय लोगों को भी अपना शिकार बनाते हैं | इस तरह पहाड अप्ने मौलिक परिवेश को भी खोने लगा है |
     जहां तक पर्यटन से पहाड के विकास की बात है वह भी पूरी तरह सच नही है | आज का पर्यटक दिल्ली, लखनऊ, मुम्बई से सीधे वीडियो कोच से पहाड पहुंचता है और यहां से उन तेज रफ़्तार वाहनों के साथ बडे बडे होट्लों मे लंच, डिनर करते हुए यहां चहलकदमी नही बल्कि दौड लगाता है | इसका सीधा असर पडा है पहाडी सड्कों के ढाबों और दुकानों पर | घुमन्तू यात्रियों के रूकने से उन्हे कुछ लाभ मिलता भी था वह भी अब नही रहा | आज सड्कों के किनारे के ढाबों और दुकानों के स्थानीय दुकानदार पर्यट्कों को बस देखते रह जाते हैं | पहाड मे स्थिति यह है कि पर्यटन केन्द्र बन जाने के बाबजूद परम्परागत कलात्मक वस्तुओं के कारीगर बेकारी मे दिन काट रहे हैं |
     तल्ख सच्चाई तो यह है कि सैरगाज बनता पहाड चंद लोगों के लिए बेशक एक सोने के अंडे देने वाली मुर्गी बन गया हो लेकिन यहां के आम स्थानीय लोगों की तो परेशानियां कुछ और बढ जाती हैं | जहां एक्तरफ़ कुछ होट्ल मालिकों, बस कंपनियों तथा बडे व्यापारियों व एजेन्टों की जेबें भारी हो रही हैं वहीं आम वाशिंदा बाजार की मंहगाई से त्रस्त रोज शाम मायूस हो घर लौटता है | +
     इस तरह हिल स्टेशन के रूप मे सैरगाह बनी यहां की वादियों के अपने दर्द है लेकिन सिनेमा के परदे पर वादियों की एक सपनीली दुनिया को देखने की अभ्यस्त हमारी रोमांटिक नजरों से वादियों का यह चेहरा हमे कभी नही दिखाई देता |
    

     

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