शुक्रवार, 30 जनवरी 2015

राजनीति ने लील लिए आसमां कैसे कैसे



( एल. एस. बिष्ट ) - इसे देश की भौगोलिक विशेषता ही कहें कि देश मे प्रवाहित होने वाली तमाम नदियां अपने उदगम से एक लंबा सफर तय करते हुए अंतत: सागर में विलीन हो जाती हैं । यहां तक पहुंचने के लिए वह जंगल, पहाड पठार और लंबे मैदानो का सफर तय करती हैं। गंगा जैसी पवित्र नदी का सफर भी सागर मे जाकर खत्म हो जाता है । कुछ ऐसा ही रहा है हमारे सामाजिक आंदोलनों का चरित्र ।
अतीत को देखें या वर्तमान परिद्र्श्य को, सामाजिक - आर्थिक कारणों से उपजे जनांदोलन अंतत राजनीति की भेंट चढ गये । राजनीति के गहरे सागर ने इनका अस्तित्व हमेशा के लिए खत्म कर दिया । वैसे तो नदियां भी सागर मे विलीन होती हैं लेकिन उसका पानी खारा जरूर है लेकिन गंदला नहीं जबकि राजनीति के सागर के साथ ऐसा नही है ।
यहां थोडा गौर करें तो गांधी जी का जनांदोलन भारतीय इतिहास के स्वर्णिम पृष्ठ हैं जिसे आने वाली पीढियां याद रखंना चाहेगी । लेकिन कहां है आज गांधी की विचारधारा और उनके रास्तों पर चलने का दम भरने वाले लोग । दर-असल आजादी के बाद गांधी और गांधीवाद दोनो ही राजनीति का हिस्सा बंन गये । अपने को गांधीवादी कहने वाले सत्ता की राजनीति मे इतना गहरे उतर चुके हैं कि उन्हें आभास तक नहीं कि गांधी का वह आंदोलन सिर्फ स्वतंत्रता आंदोलन नही था अपितु एक सामाजिक सोच व द्र्ष्टि भी थी । कुछ सामाजिक बुराईयों के विरोध मे गांधी जी हमेशा मुखर रहे थे लेकिन आज सत्ता की राजनीति ने सबकुछ लील लिया ।
सत्तर के दशक का जे.पी आंदोलन सत्ता की सीढियां चढने का माध्यम बना । आज कहां है संपूर्ण क्रांति के वह यौध्दा जो व्यवस्था परिवर्तन की हुंकार भरा करते थे। जे.पी. नेतृत्व से उपजे इस आंदोलन ने भारतीय राजनीति का एक नया अध्याय लिखा और संपूर्ण परिवर्तन की आस जगाई लेकिन आंदोलन से उपजी आवाजें जल्द ही उसी राजनीति का हिस्सा बन गईं जिसके विरोध मे यह जन्मा था । आज उस आंदोलन के सिपाही सत्ता की राजनीति मे आकंठ डूबे हैं । आंदोलन से उपजी उर्जा को राजनीति के ब्लैक होल ने अपने मे समाहित कर लिया । आज कहां है उस संपूर्ण क्रांति की सोच और कहां खो गये वह हरकारे ।
ऐसा ही कुछ हुआ है अन्ना के आंदोलन के साथ । देश के बिगडते सामाजिक, राजनैतिक व आर्थिक परिवेश के बीच एक उम्मीद की किरण जगाई थी इस आंदोलन ने जिसकी मशाल स्वयं आम आदमी ने उठाई । अन्ना, केजरीवाल या फिर किरन बेदी जैसे लोगों ने तो सिर्फ बदलाव की उस आवाज को विस्तार दिया । लेकिन इसके पहले कि यह आंदोलन अपने सही मुकाम तक पहुंचता, राजनीति के जहरीले जबडे उस तक पहुंच गये । देखते देखते इस आंदोलन को भी आम प्रचलित भारतीय त्रासदी भुगतनी पडी और यह बिखराव का शिकार होकर रह गया ।
थोडा गौर से देखें तो इस आंदोलन से जुडे वह सभी लोग जिन्होने इसे गति प्रदान की थी एक साफ सुथरी पृष्ठभूमि से निकल कर आये थे । भ्र्ष्टाचार इनकी सोच  से कोसों दूर था । इनमे परिवर्तन की ललक थी । लेकिन यकायक् केजरीवाल जी को सभी समाधान राजनीति के अंदर ही नजर आने लगे । दिशा बदलने के तर्क कुछ भी रहे हों लेकिन सच यही है कि वह राजनीति के आकर्षण से अपने को बचा न सके । सत्ता की हनक, प्रभाव और खास बने रहने के विचार मात्र ने उन्हें उस आंदोलन से अलग कर दिया । उन्हें राजनीति के उस चमकदार अंधेरे ने अपना शिकार बना ही लिया जो पहले भी कई क्रांतिवीरों को अपना शिकार बना चुका था ।
किरन बेदी ने अन्ना के साथ रहना ही ठीक समझा । उन्हें कतई उम्मीद नही थी कि यह जनसमर्थन वोट मे भी तब्दील हो सकता है । लेकिन ऐसा हुआ और केजरीवाल सत्ता के शिखर तक पहुंचने मे सफल हुए । यही नही राजनीति ने उन्हे एक खास किस्म का नेता भी बना दिया । वह मीडिया के चर्चों मे बने रहे । दुनिया भर के मीडिया ने भी उन्हे महत्व दिया । यह सब देख किरन बेदी को भी राजनीति मोहने लगी  । महत्वाकांक्षी वह पहले से थीं । इधर केजरीवाल के भय से ग्रस्त भाजपा को भी एक ईमानदार खांटी चेहरे की जरूरत महसूस होने लगी । किरन बेदी को यह सही समय लगा । " आप " बिखराव के रास्ते पर थी और भाजपा का विस्तार होने लगा था । तमाम वैचारिक विरोधों को दरकिनार कर वह भी दलगत राजनीति के सागर मे कूद पडीं । मुख्यमंत्री पद और सत्ता के लोभ ने उनकी वैचारिकता और सामाजिक-राजनैतिक् सोच को भाजपा के सांचे मे ढाल दिया । कल तक वह जिस हिन्दुत्व और संघ की मुखर विरोधी थीं अब वह उसकी समर्थन मे नारे बुलंद करने लगीं ।
यह राजनीति का मोहपाश ही था कि जिस बुनियाद पर पूरे आंदोलन की शानदार इमारत खडी हुई थी वह बुनियाद ही सरकने लगी । लेकिन बेशक आज केजरीवाल इस बात को स्वीकार न करें लेकिन सच यही है कि  जिस राजनीतिक संस्कृति केविरोध से उनका जन्म हुआ अंतत: वह उसी के शिकार भी हुए । वह शिखर पर थे जब वह कुछ नही थे और जैसे ही कुछ हुए राजनीति के विष ने अपना काम करना शुरू कर दिया और वहीं पर ला खडा किया जहां से वह चले थे । किरन बेदी का अभी इस सच से साक्षात्कार होना बाकी है । यह उनका दिवास्वप्न से ज्यादा कुछ नही कि वह राजनीति के आकाश मे अपनी मन मर्जी की उडान भर सकेंगी । उन्हें अभी यह समझना शेष है कि उनकी उडान की दिशा उनके राजनैतिक दल की सोच से निर्देशित होगी न कि उनके स्वयं के विचारों से । वह उतनी ही उडान भर सकेंगी जितना उनकी पार्टी चाहेगी । एक दिन उनका भी इस राजनीति से मोहभंग होना निश्चित है लेकिन तब तक बहुत देर हो चुकी होगी । राजा बनने की ललक मे राजनीति के सागर मे डुबकी लगाये हुए और फिर मोहभंग का शिकार हुये ऐसे तमाम लोग या तो वैराग्य जीवन के लिए अभिशिप्त हुए या फिर स्वयं ही हाशिए की जिंदगी को स्वीकार कर लिया ।
आज सवाल यह महत्वपूर्ण नही है कि मुख्यमंत्री कौन बनेगा , केजरीवाल या फिर किरन बेदी । यह सत्ता का खेल है लेकिन शायद कहीं अच्छा होता यदि राजनीति के सम्मोहन से मुक्त हो यह लोग अन्ना आंदोलन के झंडे तले अपनी मशाल को जलाये रखते । समय समय पर राजनीति को निरंकुश व जन विरोधी होने से रोकते । इनका सामाजिक संगठन राजनीति से मुक्त हो देश व समाज के हित मे एक अच्छी सकारात्मक भूमिका का निर्वाह करता । लेकिन ऐसा हो न सका और राजनीति के सम्मोहन ने एक जन आंदोलन को लील लिया । अन्ना एक छ्ले हुए, हारे सिपाही की मानिंद अकेले खडे हैं । आंदोलन का यह बिखराव एक तरह से राजनीति की जीत है और  विचारों और मूल्यों की हार । यह आने वाले कल के लिए एक शुभ संकेत तो कतई नही है ।  

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