शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

जरूरी है छात्रसंघों का चुनाव


 ( L.S. Bisht ) - अभी हाल मे एक सम्मेलन के अवसर पर उत्तर प्रदेश के राज्यपाल महोदय ने छात्रसंघों के चुनाव को
लेकर कुछ सकारात्मक संकेत दिये हैं । उनका मानना है कि छात्रसंघों के चुनाव जल्द से जल्द किए जाने चाहिए । इधर कुछ समय से छात्रसंघों के चुनाव न कराये जाने के कारण छिटपुट आवाजें भी उठाई जाती रही हैं । दर-असल अस्सी के दशक के बाद से इन छात्र संगठनों का चरित्र तेजी से बदला है और जनसामान्य की नजर मे इनका काम सिर्फ नारेबाजी करना, धरना-प्रदर्शन और अराजकता फैलाना भर रह गया है ।यही कारण है कि  छात्रसंघों में राजनीति किस सीमा तक होनी चाहिये यह अभी तक तय नही हो सका है। क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि जहां दुनिया के दूसरे देशों में छात्रसंघों की भूमिका स्पष्ट है वहीं दुनिया के सबसे बडे इस लोकतांत्रिक देश मे तस्वीर अभी तक साफ नही हो पायी है। परंतु देश मे तेजी से बदल रहे राजनीतिक परिवेश मे अब यह समझा जाने लगा है कि राजनीति मे युवाओं की भागीदारी सकारात्मक बदलावों के लिए जरूरी है।
गत आम चुनावों मे जिस तरह युवाओं ने सत्ता परिवर्तन मे अहम भूमिका निभाई उससे भी यह महसूस किया जाने लगा है कि छात्र संगठनों को सिर्फ नकारात्मक नजरिये से देखना सही नही है ।
यह सही है कि अब तक छात्रसंघों की पहचान कुछ अलग किस्म की रही है ।  विश्वविधालयों व कालेजों में छात्रसंघों के चुनाव होते हैं । रंगीन पोस्टर व बैनरों से कुछ दिन के लिए पूरा शहर पट सा जाता है । प्र्चार युध्द भी कम आक्रामक नही होता ।  हिंसात्मक घटनाओं से लेकर उम्मीदवार के अपहरण व हत्या तक की वारदातें होती हैं । विजयी उम्मीदवारों के जुलूस पूरे शहर को मंत्रमुग्ध कर आकर्षण तथा चर्चा का विषय बनते हैं । लेकिन इसके बाद यह छात्र नेता और छात्रसंघ क्या कर रहे हैं इसका पता किसी को नही लगता । इतना अवश्य है कि समय समय पर दुकानों को लूट्ने, होट्लों में बिल अदा न करने, स्थानीय ठेकों को हथियाने के प्र्यास में मारपीट करने के कारण छात्र शक्ति चर्चा का विषय बंनती है । देखते देखते कुछ छात्र नेता जन नेता बनने की प्रक्रिया से जुड राजनीतिक गलियारों में दिखाई देने लगते हैं ।
कुछ अपवादों को छोड कमोवेश यही तस्वीर है हमारे तथाकथित छात्रसंघों की और कुल मिला कर छात्र शक्ति का यही चरित्र उभर सका है । लेकिन  इसे देख कर क्या यह मान लिया जाना चाहिए कि छात्रों के लिए छात्रसंघों तथा संगठनों का कोई औचित्य नही रह गया है या फिर इस तर्क को स्वीकार लिया जाये कि छात्र जीवन में किसी प्र्कार की राजनीति का कोई स्थान नही है ।
वर्तमान से उठते इन सवालों पर जरा गहराई से विचार करें तो पता चलता है कि नाउम्मीदी के बादल इतने घने भी नही हैं । अतीत गवाह है कि महात्मा गांधी, सुभाष च्न्द्र बोस और जय प्र्काश नरायण के आहवान पर छात्र संगठन जो कर गुजरे वह आज इतिहास बन गया है ।
स्वतंत्रता पूर्व की छात्र राज्नीति का सुनहला इतिहास रहा है । 1905 में कलकत्ता विश्वविधालय के दीझांत समारोह में लार्ड कर्जन ने बंगाल विभाजन की बात बडे ह्ल्के ढंग से कही थी लेकिन छात्रों को समझते देर न लगी । जल्द ही पूरे राज्य मे इसके विरूद आंदोलन शुरू हुए। एकबारगी अंग्रेज सरकार हैरत मे पड गई । बंगाल से उपजी यह चेतना जल्द ही दूसारे राज्यों में भी फैल गयी । 1920 मे नागपुर में अखिल भारतीय कालेज विधार्थी सम्मेलन हुआ और नेहरू के प्र्यासों से छात्र संगठनों को सही अर्थों मे अखिल भारतीय स्वरूप मिला । इसके बाद वैचारिक मतभेदों को लेकर संगठनों में टूट फ़ूट होती रही ।
कुछ वर्षों तक कुछ भी सार्थक न हो सका । सत्तर के दशक में दो महत्वपूर्ण घट्नाएं अवश्य छात्र राजनीति के क्षितिज मे उभरीं । पहला 1974 मे ज़े.पी. आंदोलन जो व्यापक राष्ट्रीय मुद्दों को लेकर शुरू हुआ। दूसरा असम छात्रों का आंदोलन जिसकी सुखद परिणति हुई तथा युवा छात्र सत्ता में भागीदार बने । बाकी याद करने लायक कुछ दिखाई नही देता । मंडल आयोग को लेकर युवा आक्रोश जिस रूप मे प्र्कट हुआ इससे तो एक्बारगी पूरा देश हतप्र्भ रह गया ।
इधर कुछ वर्षों से छात्र राजनीति मे राजनीतिक दलों का हस्तक्षेप इस सीमा तक बढा है कि इसमे वे छात्र ही उभर सकते हैं जो किसी न किसी राजनीतिक दल से जुडे होने और सभी चुनावी पैतरों का इस्तेमाल कर सकते हों । राजनीतिक दलों के इस हस्तक्षेप ने जहां एक तरफ आम छात्र को छात्रसंघों के चुनाव से दूर खडा कर दिया है वहीं दूसरी तरफ चुनाव को खर्चीला भी बनाया है ।इसके साथ ही अपराधी तत्वों की भागीदारी भी बढ्ने लगी है।
दलगत राजनीति के साथ ही जातीय , क्षेत्रीय व साम्प्र्दायिक समीकरणों को भी बल मिला है । बिहार व उत्तर प्र्देश के अधिकांश कालेजों में चुनाव जातीय समीकरणों के आधार पर लडे जाते रहे । इस तरह स्थिति बद से बदतर होती रही है।
ऐसा  भी नही कि छात्र राजनीति में संभावनाओं का आकाश बहुत सीमित है ऐसे बहुत से उदाहरण हैं जिन्होने आगे चल कर राष्ट्रीय राजनीति मे महत्वपूर्ण योगदान दिया लेकिन छात्र जीवन मे उन्हे किसी राजनैतिक दल की छ्तरी की आवश्यकता महसूस नही हुई । डा. जाकिर हुसैन अलीगढ विश्वविधालय की ही उपज थे। इनके अलावा डा. मौलाना आजाद, शेख अब्दुल्ला , फखरूदीन अली अहमद भी अपने छात्र जीवन मे यहां के छात्र संगठन से जुडे रहे । इलाहाबाद  विश्वविधालय के छात्र संघ ने भी कई राजनेता देश को दिये । हेमवती नंदन बहुगुणा , वी.पी.सिंह , चंद्र्शेखर, नुरूल हसन, जनेश्वर मिश्र , मोहन सिंह आदि ने राष्र्टीय राजनीति मे अपनी पुख्ता पहचान बनाई। लखनउ विश्वविधालय और दिल्ली  विश्वविधालय ने तो कई नेताओं को संसद पहुंचाया ।
लेकिन यह उपलब्धियां उस दौर की हैं जब सिद्दांत परक राजनीति का ही परिसर मे वर्चस्व था । लेकिन इसके बाद जो हुआ उसका ही परिणाम यह हुआ कि  छात्र आंदोलन आम छात्र से कटने लगा  ' आई हेट पालिटिक्स ' कहने वाले व्रर्ग का जन्म इसी राजनीति के गर्भ से ही हुआ ।लेकिन् इधर कुछ समय से युवा वर्ग मे सुखद बदलाव के संकेत दिखाई देने लगे हैं । वह राजनीति को समझ्ने की कोशिश करने लगा है और उसमे भागीदारी भी । देखा जाए तो इधर राजनीति व सामाजिक क्षेत्र मे बहुत से बदलावों मे इस वर्ग ने ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई तथा उसके अच्छे परिणाम भी सामने आए । आज का छात्र पहले की अपेक्षा कहीं ज्यादा परिपक्व है तथा उसे पता है कि उसके सार्थक हस्तक्षेप से हालात बदल सकते हैं । वैसे भी छात्रसंघों को  राजनीति की नर्सरी माना जाता है । यहीं से वह देश और समाज को समझ कर आगे चल कर देश की राजनीति मे कदम रखता है । अगर यह नर्सरी ही न होगी तो आने वाले कल मे देश की राजनीति मे नये विचारों का समावेश संभव नही । इसलिए जरूरी है कि छात्र जीवन के इस मंच को हाशिए पर न डाला जाए तथा विश्विधालयों व कालेजों मे छात्रसंघों के चुनाव कराएं जाएं ।



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