शुक्रवार, 22 मई 2015

सार्वजनिक संपत्ति की सुरक्षा पर कानून



 ( एल. एस. बिष्ट ) - देर से ही सही सरकार ने राष्ट्र्हित मे एक सही कदम उठाने की पहल की है और इस दिशा मे गंभीर प्रयास भी शुरू कर दिए हैं । वैसे तो प्रदर्शनों व आंदोलनों के दौरान सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने की बढती प्रवृत्ति को देखते हुए उच्चतम न्यायालय ने बहुत पहले ही एक कमेटी गठित कर दी थी । इस कमेटी को यह सुझाव देना था कि ' प्रिवेंशन आफ डेमेज टू पब्लिक प्रापर्टी कानून 1984 '  को किस तरह से और अधिक प्रभावी बनाया जा सके । लेकिन काफी समय तक इस दिशा मे कोई विशेष प्रगति नही हुई थी । अभी हाल मे कमेटी ने अपनी सिफारिशें सरकार को दे दी हैं ।इसमें  सरकारी संपत्ति की रक्षा मे वर्तमान कानून को कमजोर बताते हुए इसे और अधिक कठोर बनाने के सुझाव भी दिए हैं । अब गृह मंत्रालय इस कानून को सख्त बनाने की दिशा मे सक्रिय हुआ है तथा इस संबध मे देशभर से राय व सुझाव भी मांगे हैं ।

इस कानून को कुछ इस तरह से सख्त बनाया जायेगा कि प्रदर्शनों व आंदोलनों के दौरान किए गये सरकारी संपत्ति के नुकसान के लिए अब भारी जुर्माना देना पडे तथा लंबी कैद की सजा भी ।

यहां गौरतलब है कि इधर कुछ वर्षों से देश मे नागरिक अधिकारों व प्रजातंत्र के नाम पर ऐसे व्यवहार का प्रदर्शन किया जाने लगा है कि एक्बारगी यह समझ पाना मुश्किल हो जाता है कि इसे राष्ट्र्हित कहें या फिर राष्ट्र्द्रोह । राजनीतिक रूप से ' भारत बंद " या ' प्र्देश बंद अथवा शहर बंद का नारा हो या फिर छोटी छोटी नागरिक समस्याओं को लेकर प्रदर्शन करना, सडक जाम कर लोगों को असुविधा मे डालना तथा सरकारी संपत्ति का नुकसान करना, यह सब अब रोज की बात है । शुरूआती दौर मे यह कभी कधार देखने को मिलता था लेकिन अब तो मानो इसे एक हथियार बना दिया गया हो ।

देखा जाए तो शुरूआती दौर मे सरकारी संपत्ति के नुकसान का श्रेय भी हमारी राजनीतिक संस्कृर्ति को ही जाता है । बंद के आयोजनों तथा राजनीतिक प्रदर्शनों मे सत्ता पक्ष दवारा किये जाने वाले विरोध की प्रतिक्रिया स्वरूप सरकारी गाडियों , इमारतों आदि को आग के हवाले कर देने से इसकी शुरूआत हुई । तब इसे इतनी गंभीरता से नही लिया गया । लेकिन धीरे धीरे इसे अपने विरोध का एक कारगर तरीका ही बना दिया गया ।

आज स्थिति यह है कि किसी मुहल्ले मे बिजली की परेशानी हो या फिर पानी की समस्या, देखते देखते लोग सडक जाम कर धरना-प्रदर्शन शुरू कर देते हैं । पुलिस के थोडा भी बल प्रयोग या विरोध से यह प्रदर्शन आगजनी व तोडफोड के हिंसक प्रदर्शन मे बदल जाता है । थोडी ही देर मे कई सरकारी वाहनों को आग के हवाले कर दिया जाता है । सबकुछ शांत हो जाने पर इस भीडतंत्र का कुछ नही बिगडता । एक औपचारिक पुलिस रिपोर्ट अनजान चेहरों की भीड के नाम लिखा दी जाती है । इस तरह की रिपोर्ट लिखवाने का मकसद ऐसे तत्वों को सजा दिलवाना नही बल्कि सरकारी स्तर पर अपनी ' खाल बचाना '  होता है । खाना पूरी के बाद लाखों करोडों के सरकारी नुकसान को बट्टे खाते मे डाल कर फाइल बंद कर दी जाती है ।

यहां गौरतलब यह भी है कि सरकारी संपत्ति को नुकसान पहुंचाने के इस कार्य का विस्तार अब सिर्फ राजनीतिक प्रदर्शनों या नागरिक धरनों तक सीमित नही है । न्क्सलवाद व क्षेत्रीयवाद के नाम पर भी ऐसा किया जा रहा है । नक्सलियों दवारा आए दिन सरकारी वाहनों व पुलों को उडाने की खबरें आती रहती हैं । देश के नक्सली प्रभावित क्षेत्रों मे प्रतिवर्ष करोडों रूपयों की सरकारी संपत्ति इस ' वैचारिक विरोध ' की भेंट चढ जाते हैं । आंध्र प्रदेश , महाराष्ट्र , छ्त्तीसगढ, झारखंड व बिहार जैसे राज्यों मे तो करोडों रूपयों की सरकारी संपत्ति का नुकसान प्रतिवर्ष हो रहा है ।

कुछ समय पहले इस संदर्भ मे एक पत्रिका मे एक चुटकला प्रकाशित हुआ था कि देश मे अगर किसी चार साल के बच्चे को भी किसी बात पर अपना आक्रोश व्यक्त करना है तो  वह भी अपनी दूध की बोतल को किसी सरकारी बस की तरफ ही फेकेगा । बेशक यह एक अतिश्योक्तिपूर्ण प्रसंग हो लेकिन हालातों की एक बानगी तो प्रस्तुत करता ही है ।

दुर्भाग्यपूर्ण दुखद स्थिति तो यह है कि अपने गुस्से का इस प्रकार से इजहार करते हुए शायद ही कभी किसी ने सोचने की जहमत उठाई हो कि आखिर यह सरकारी संपत्ति आई कहां से ?  क्षण मात्र के अगर य्ह विचार मस्तिष्क में कौंध जाए तो संभवत: उठे हुए हाथ वहीं ठहर जाएं । लेकिन ऐसा होता नही है । इस तरह सरकारी संपत्ति से यह खिलवाड बदस्तूर जारी है ।

वैसे देखने वाली बात यह भी है कि ऐसे ही कानूनों की आवश्यक्ता कुछ अन्य क्षेत्रों मे भी है । जिस तरह से सार्वजनिक स्थलों व सेवाओं के प्रति हमारी एक लापरवाह व स्वार्थी मानसिकता बन गई है, उसे देखते हुए कानून का भय जरूरी हो गया है । बेशक मन से न सही, कम से कम सजा के भय से तो कुछ अच्छे परिणाम मिलने की संभावना बनेगी । इसलिए अब जरूरत इस बात की है कि इस कानून को यथाशीघ्र सामयिक व सख्त बना कर देश भर मे लागू किया जाए तथा सरकारी संपत्ति के प्रति जो नजरिया बन गया है उसे बदला जाए ।

एल.एस.बिष्ट, 11/508, इंदिरा नगर, लखनऊ-16

मंगलवार, 12 मई 2015

पर्वतारोहण से मैला होता हिमालय




(एल.एस.बिष्ट )- हिमालय अभी हाल मे चर्चा का विषय बना । नेपाल मे आए भूंकप ने हिमालय की चोटियों पर जो कहर बरपाया उसमें कई पर्वतारोहियों को अपनी जान गंवानी पडी । लेकिन जिस तरह से यहां पर्वतारोहण की एक होड सी लगी है उसमें इस तरह की घटनाओं का होना कोई आश्चर्य का विषय भी नही । प्रतिवर्ष कई लोग इन बर्फीली चोटियों मे हमेशा के लिए दफन हो जाते हैं । लेकिन एक साथ इतनी मौतों ने कुछ सवाल भी खडे किये हैं । कहीं ऐसा तो नही कि रोमांच के शौकीन लोगों के लिए हिमालय की यह चोटियां एक पिकनिक स्पाट का रूप लेने लगी हों ।
इधर कुछ समय से पर्वतारोहियों की जो बाढ आयी है इसने यहां की चोटियों को किस हद तक कूडे के ढेर मे तब्दील कर दिया है , इस पर अभी गंभीरता से सोचा जाना बाकी है । लेकिन यहां की बर्फीली चोटियों मे बढते प्रदुषण की तरफ प्रधानमंत्री ने चिंता जाहिर की है और इसे प्रदूषण मुक्त किये जाने के अपने वादे को दोहराया है ।

सर एडमंड हिलेरी ने कभी कहा था कि हिमालय एक थाती है जो मात्र भारत और उसके आसपास के देशों की ही न होकर सारी दुनिया की है । उनका मानना रहा है कि अपने अनूठे आकर्षण के कारण ही एक बार जो इस प्रदेश आता है, यही का हो जाता है । लेकिन आज पर्वतारोहण अभियानों की बाढ ने इसे गंदगी और प्रदूषण का पर्याय बना दिया है । गतिविधियों की इस बाढ के फलस्वरूप हिमालय क्षेत्र मे प्रदूषण किस सीमा तक बढ गया है, इसका अंदाजा अस्सी के दशक मे ही हो चुका था ।

1983 मे दिल्ली मे हिमालय पर्वतारोहण एवं पर्यटन सम्मेलन आयोजित किया गया था । इस सम्मेलन मे भारतीय पर्वतारोहण संस्थान के तत्कालीन अध्यक्ष ने आगाह किया था कि हिमालय कि हिमालय प्रदेश मे निरंतर गंदगी फैलाई जा रही है । शिखरों को जाने वाले मार्ग कूडे के अंबार बने हैं । पेड पौधों का सत्यानाश किया जा रहा है । लेकिन यह चेतावनी अनसुनी ही रह गई । इस दिशा की तरफ कभी गंभीरता से सोचा ही नही गया ।

इधर कुछ वर्षों से पर्वताहियों की बाढ सी आ गई है । वर्ष 1960 मे हिमालय अंचल मे मात्र बीस पर्वतारोही अभियान गये लेकिन अब इनकी संख्या प्रतिवर्ष 300 से भी ज्यादा है । पर्वतारोहण के नाम पर भी अनेक संस्थाएं उग आई हैं । इसका एक बडा कारण एवरेस्ट विजय को एक उपलब्धि के रूप मे महिमामंडित करना भी रहा है । इसके अतिरिक्त प्रचार तंत्र विजयी  लोगों को जिस तरह से आंखों पर बैठाता है उसने भी पर्वतारोहण का एक ऐसा ' क्रेज ' पैदा किया जिसकी अब कोई सीमा नजर नही आती ।

दर-असल 1953 मे एवरेस्ट की पहली विजय के बाद देशी-विदेशी पर्वतारोहियों का जो सिलसिला शुरू हुआ उसने एवरेस्ट को एक कूडे के ढेर मे बदल दिया है । पुरूषों के बाद महिलाएं भी कीर्तिमान बनाने की होड मे शामिल हो गयीं हैं । बचेन्द्री पाल व संतोष यादव की सफलता ने देश मे महिला पर्वतारोहियों को एक नया उत्साह दिया और अब तो एक होड सी लग गई है ।

सर्वोच्च शिखर मे सफलता के झंडे गाडने की होड ने हिमालय क्षेत्र को किस स्थिति तक पहुंचा दिया है, इस पर किसी का ध्यान नही गया है । प्रचार माध्यम भी कीर्तिमानों का ही बखान करते रहे । अब जब हालात बद से बदतर होने लगे हैं तथा पर्यावरण की गंभीर समस्या आ खडी हुई है, इस दिशा मे सोचा जाने लगा है । हिमालय की चोटियों पर बढती गंदगी को लेकर  प्रधानमंत्री की चिंता इसका प्रमाण है।  वस्तुत: इन अभियानों की बाढ ने हिमालय के इस क्षेत्र को गंदगी और प्रदूषण का पर्याय बना दिया है । इन अभियान दलों के सदस्यों दवारा फैलाया गया कूडा-कचरा जैसे कि पोलीथीन, खाली टिन के डिब्बे, जूस व अन्य पेय पदार्थों के डिब्बे, रस्सी-खूटियां व अन्य सामान इतनी बडी मात्रा मे जमा हो गए हैं इन्हें यहां से हटाना अपने आप मे एक मुश्किल काम है । कूडे कचरे के बारे मे एक बार बछेन्द्रीपाल ने स्वयं कहा था कि साउथ पोल ( 26000 फुट ) पर इतना कूडा एकत्र हो गया है कि उससे एक मकान बनाया जा सकता है ।

आज हालात यह हैं कि आधार कैंप से लेकर एवरेस्ट की चोटी तक, पूरे मार्ग मे जगह जगह कूढे के ढेर दिख जायेंगे । यहां गौरतलब यह भी है कि ठंडे मौसम के कारण यहां कचरा उसी स्थिति मे लंबे समय तक पडा रहता है । समस्या गंभीर होती देख बीच बीच मे कुछ सफाई प्रयास भी किये गये लेकिन उनसे कोई बहुत अधिक लाभ नही मिला । लेकिन अब पानी सर के ऊपर से बहने लगा है । यह जरूरी हो गया है कि इस दिशा मे अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर प्र्यास किये जाएं तथा इस हिमालय क्षेत्र को प्रदूषण मुक्त करने के लिए आधुनिक तकनीक का इस्तेमाल करते हुए अभियांन दलों को अनुमति देने की शर्तें और भी  कडा कर दिया जाएं ।  इसके साथ ही अभियानों की संख्या को भी सीमित रखना बेहद जरूरी है । । समय रहते इस ओर गंभीरता से न सोचा गया तो यह हिम शिखर गंदगी का ढेर बन कर रह जायेंगे ।

गुरुवार, 7 मई 2015

प्रपंच की राजनीति


( एल. एस. बिष्ट ) -मौजूदा परिद्र्श्य को देखें तो लगता है कि मूल्यों और मुद्दों की राजनीति का दौर अब इतिहास का हिस्सा बन चुका है । अब अगर कुछ शेष है तो तात्कालिक लाभ की राजनीति और उसे प्राप्त करने की जिद्दोजहद । इधर कुछ समय से मूल्यविहीन राजनीति की जो संस्कृति विकसित हुई है उससे सबसे बडा अहित उस समाज का ही हुआ है जिसके " सेवक " बनने के दावे करते हुए राजनेता नही अघाते । महत्वहीन बातों को लेकर धरना-प्रदर्शन व शोर-शराबा तो अब रोज की बात है । गैर जरूरी मुद्दों पर बेतुके बयान देकर चर्चा मे रहना भी मानो नेताओं का शगल बन गया है । गौरतलब तो यह है कि ऐसा किसी दल विशेष के साथ नही है अपितु यह पूरे देश की राजनीतिक संस्कृति बन चुकी है ।

इधर पिछले कुछ घटनाक्रमों को देखें तो बात पूरी तरह से साफ हो जाती है । मामला चाहे धर्म परिवर्तन (लव जेहाद ) का हो या फिर बलात्कार व महिला उत्पीडन का अथवा राजनीतिक प्रेम प्रसंग या फिर बाबा रामदेव की पुत्रजीवक औषधी का , एक अलग किस्म की राजनीति देखने को मिली है । कहीं कोई गंभीरता नहीं बल्कि घटिया बयानबाजी और न्यूज चैनलों की अतार्किक बहस को देख कर तो आमजन भी यह समझने लगा है कि हमारे राजनेताओं मे विषय की जानकारी का नितांत अभाव है ।

कुछ समय से महिला सबंधी खबरों पर तो मानो बेतुके बयानबाजी करने की एक होड सी लग गई है । मानवीय संवेदनाओं से जुडी इन खबरों पर जिस तरह की राजनीतिक चर्चाएं हुईं, उससे यह बात साफ हो गई कि हमारी राजनीतिक बहसों का स्तर अब अपने न्यूनतम स्तर तक पहुंच गया है । यही नही, राजनीतिक लाभ के लिए इन खबरों को लेकर जो भडकाऊ राजनीति की गई उसने सारी सीमाओं को लांघ दिया । यही नही, इस शैली ने इस संवेदनशील मुद्दे को एक पाखंडपूर्ण व्यवहार मे तब्दील करने मे कोई कोताही नही बरती । सच तो यह है कि इस राजनीतिक व्यवहार ने तार्किक चर्चा व बहस से कुछ ठोस निर्णयों व नतीजों पर पहुंचने की संभावनाओं को भी पूरी तरह धुमिल कर दिया । दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि यह सिलसिला अभी रूका नही है ।

हाल की कुछ राजनीतिक घटनाओं को लेकर जिस राजनीतिक तमाशेबाजी का प्रदर्शन देखने को मिला, उसने देश की राजनीतिक छवि को आहत ही किया है । भूमि अधिग्रहण अध्यादेश को लेकर किसानों के हितैषी व झंडाबरदार बनने की होड मे जो तमाशे किए जाते रहे हैं उसने एक तरह से पूरे कृषक समुदाय का उपहास ही उडाया है । किसानों की आत्महत्याओं से उपजे बडे सवाल इस राजनीतिक तमाशे की भेंट चढ गये । आत्महत्या जैसी मार्मिक घटनाएं महज राजनीतिक ' हथियार ' बन कर रह गईं । विरोध की राजनीति तर्कसंगत है लेकिन विरोध का तरीका भी मानवीय संवेदनाओं से कट कर नही होना चाहिए । ' आप ' पार्टी की रैली मे एक किसान दवारा की गई आत्महत्या और फिर उसको लेकर की गई राजनीति से हमारी राजनीतिक संस्कृति का जो भदेस चेहरा सामने आया उसने देश मे भविष्य की राजनीति पर भी गंभीर सवाल खडे किये हैं ।

बाबा रामदेव की एक औषधी से जुडा मामला भी हमारे राजनीतिक दिवालियेपन का उदाहरण बना । ' पुत्रजीवक ' नाम की इस औषधी का कुछ नेताओं ने यह मतलब निकाल दिया कि इसका उपयोग पुत्र प्राप्ति के लिए किया जाता है । देखते देखते तमाम बडबोले राजनेता बैसिर-पैर की बहस करने लगे । हमारे टी.वी. चैनलों को तो मानो मुंह मांगी मुराद मिल गई हो । शुरू हो गया चर्चाओं का दौर । किसी ने भी इस बात पर तनिक ध्यान देना उचित नही समझा कि दवा के पैकेट पर साफ लिखा है कि दवा बंधत्व दोष दूर करने हेतु है यानी जिन महिलाओं को किन्हीं कारणों से संतान नही होती वह इस दवा का उपयोग कर संतान सुख प्राप्त कर सकते हैं । लेकिन तत्काल ही नेताओं की एक ऐसी फौज तैयार हो गई जिसने इसे पुत्र प्राप्ति से जोड दिया । और बाबा रामदेव को महिला हितों के विरूध्द होने का टैग लगा दिया गया । गैर जिम्मेदारी और बौध्दिक दिवालियेपन का यह एक रोचक उदाहरण बना ।

हमारी इस राजनीतिक संस्कृति से उपजा एक और मामला पंजाब मे सामने आया । एक बस मे सवार मां- बेटी कुछ लोगों की छेडछाड से बचने के लिए बस से कूद पडीं जिसमें बेटी की मौत हो गई । इत्तफाक से बस का संबध बादल परिवार से था । बस क्या था । देखते देखते सत्ता के गलियारों से लेकर सडकों तक एक् तमाशा शुरू हो गया । मौत पर राजनीति का यह रंग देख किसी का भी मानवीय मूल्यों से भरोसा उठना स्वाभाविक ही है ।


बात यहीं तक सीमित नही है । "आप " पार्टी की एक महिला कार्यकर्ता को लेकर कुमार विश्वास और पूरे मामले पर जो राजनीतिक तमाशा खडा किया गया, वह भी गैर जरूरी ही था । लेकिन अब मानो यही राजनीति का स्थाई चरित्र बन गया हो । जिन बातों को नजर-अंदाज किया जाना चाहिए, उन्हें एक बबंडर का रूप देकर खूब राजनीतिक रोटियां सेंकी जाने लगी हैं । अलबत्ता इस चुहा दौड मे न किसी को राजनीतिक मूल्यों से कोई लेना देना है और न ही मानवीय संवेदनाओं से । राजनीति का यह अमानवीय चेहरा और पाखंडपूर्ण राजनीतिक शैली, देश को किस दिशा की ओर ले जायेगी, पता नही । यह तो समय के गर्भ मे है । लेकिन इतना तय है कि यह इस लोकतांत्रिक देश के हित मे कतई नही । 

शनिवार, 2 मई 2015

अब नेपाल के सामने पहाड सी चुनौतियां




( L. S. Bisht ) -    हिमालय की गोद मे 147181 वर्ग किलोमीटर मे बसे नेपाल मे प्रकृति ने जो तांडव किया इसने पूरी दुनिया को न सिर्फ़ विचलित किया अपितु सोचने पर भी मजबूर कर दिया | चंद लम्हों मे आई इस भीषण तबाही से इस देश मे जान माल का जो नुकसान हुआ है उसका आकलन करना इतना आसान नही | लेकिन खुली आंखों से जो मंजर दिखाई दिया, उससे इतना तो स्पष्ट है कि अब इस हिमालयी देश को अपने पैरों मे खडे होने मे बहुत समय लगेगा | ऐसे मे तबाह हो चुकी इस देश की अर्थव्यवस्था को पटरी मे लाने के लिए विश्व बिरादरी के मदद की दरकार होगी |
     वैसे तो मौत और तबाही के इन भावुक लम्हों मे विश्व समुदाय ने यथासंभव मदद कर घावों मे मलहम लगाने का भरसक प्रयास किया है लेकिन आर्थिक रूप से कमजोर इस देश के लिए इतना ही प्रर्याप्त नही है | दुनिया के तमाम देशों की यह संवेदना तो उसके ताजे रिसते हुए घावों मे मलहम का काम करेगी ही लेकिन असली परीक्षा तो अब शुरू होगी |
     दर-असल इधर कुछ वर्षों से नेपाल राजनीतिक अस्थिरता के दौर से गुजरता रहा है | हाल मे हालात कुछ सामान्य हुए और विकास के रूके हुए कामों को कुछ गति मिलने लगी थी | लेकिन भूकंप की इस विनाशलीला ने सबकुछ तहस नहस कर इस देश को फ़िर कहीं पीछे धकेल दिया है |
     अमरीका के भौगोलिक सर्वे ने अपनी वेबसाइट पर लिखा है कि चंद मिनटों मे नेपाल को 10 अरब डालर ( करीब 63,000 करोड रूपये ) का नुकसान हो गया है | नेपाल की कुल अर्थव्यवस्था 20 अरब डालर ( 1,26,000 करोड रूपये ) है | सर्वे मे कहा गया है कि नेपाल की आधी अर्थव्यस्था खत्म हो गई है |
     यूनाइटेड स्टेट्स जियोलाजिकल सर्वे मे भी शुरूआती अनुमान के अनुसार भूकंप से नुकसान 10 अरब डालर तक हो सकता है | लेकिन चूंकि भूकंप 25 अप्रेल के बाद भी लगातार आता रहा है इसलिए नुकसान इस अनुमान से कहीं ज्यादा होने की संभावना है | कुछ ने इस नुकसान का अनुमान नेपाल की कुल सकल घरेलू उत्पाद ( जीडीपी ) यानी 20 अरब डालर के लगभग माना है | बहरहाल पुख्ता अनुमान अभी लगाना संभव भी नही है | लेकिन इतना तय है कि इस त्रासदी ने नेपाल की अर्थव्यवस्था को गहरा धक्का पहुंचाया है | इससे उबरने मे इसे कई वर्षों का समय लगेगा |
     भौगोलिक रूप से तीन भागों – पर्वतीय, शिवालिक और तराई क्षेत्र मे बंटा यह देश पारंपरिक रूप से कृषि आधारित रहा है | 1990 से पूर्व यहां की अर्थव्यवस्था मे कृषि का योगदान 39 प्रतिशत रहा है जो अब घट कर 33 प्रतिशत रह गया था | यह तेजी से बदलते आर्थिक परिवेश के कारण संभव हो सका | हाल के वर्षों मे आए बदलावों के फ़लस्वरूप नेपाल की अर्थव्यवस्था मे सेवा क्षेत्र की भूमिका तेजी से बढी है | यहां के सकल घरेलू उत्पाद मे इसका योगदान 52 प्रतिशत से अधिक है | इस क्षेत्र मे आय का प्रमुख जरिया पर्यटन उद्योग है |
     सांस्कृतिक रूप से नेपाल की एक समृध्द विरासत रही है | यहां समय के विभिन्न कालखंडों मे विभिन्न राजाओं दवारा बनाये गये मंदिरों की भरमार है | यूनेस्को की सात विश्व धरोहर भी नेपाल में ही हैं | इस सांस्कृतिक व पुरातत्व महत्व की पृष्ठ्भूमि के कारण यहां प्रतिवर्ष लगभग आठ लाख पर्यटक आते हैं | जिससे देश को लगभग 45 करोड डालर की आय होती है | इसके अतिरिक्त पर्यटन उद्योग मे रोजगार भी तेजी से बढा है | लेकिन अब जबकि अधिकांश पर्यटन स्थलों को भारी नुकसान पहुंचा है तथा कुछ तो पूरी तरह से खत्म ही हो चुके हैं, इसने पर्यटन व्यवसाय की कमर ही तोड दी है | आखिर पर्यटक अब क्या देखने नेपाल आयेगा , यह एक बडा सवाल है | इन्हें दोबारा बनाने, संवारने मे एक लंबा समय लगेगा | एक तरह से इस भूकंप ने नेपाल की अर्थव्यवस्था की रीढ कहे जाने वाले पर्यटन व्यवसाय को पूरी तरह से चौपट कर दिया है | यही इस देश का सबसे बडा चिंता का विषय है |
     इसके अलावा सरकारी इमारतों, अस्पतालों व अन्य सार्वजनिक भवनों के पूरी तरह से बर्बाद हो जाने के कारण भी करोडों रूपयों का जो नुकसान हुआ है, उसकी भरपाई करना भी इतना आसान नही है | विदेशी निवेश को भी इस भूकंप ने करारा झटका दिया है | यह नेपाल जैसे कमजोर देश के लिए एक सदमे से कम नही |

     कुल मिला कर भूकंप की तंरगें जो गुजर गईं इस देश को ऐसे घाव दे गई जिनका भर पाना निकट भविष्य मे संभव नही दिखता | ऐसे मे इस लाचार, बेबस देश को दोबारा पटरी पर लाने के लिए भारी आर्थिक सहायता की जरूरत होगी | दुनिया के तमाम देश अगर इस दिशा मे ठोस पहल कर सके तो यह नेपाल की बर्बाद अर्थव्यवस्था के लिए संजीवनी का काम करेगा | इसलिए जरूरी है कि तात्कालिक सहायता के साथ साथ ऐसे उपाय भी किये जाएं जिससे इस देश को अपने पैरों मे दोबारा खडे होने मे सहायता मिल सके | यह विश्व बिरादरी की पहल से ही संभव है |