रविवार, 31 जुलाई 2016

एक उलझी, अनसुनी लडाई का मध्यांतर


(L. S. Bisht  ) ईरोम चानू शर्मीला, जी हां यही नाम है मणिपुर की उस महिला का जिसे " आयरन लेडी " यानी लौह महिला भी कहा जाता है । पूर्वोत्तर मे लागू भारत सरकार के विवादास्पद कानून ' आफस्पा ' यानी सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून के खिलाफ उसकी लडाई की अपनी कहानी है । राष्ट्रीय - अंतरराष्ट्रीय मंचों मे चर्चित ईरोम का संघर्ष जनांदोलनों के इतिहास मे एक खास पहचान रखता है । यह इस मायने मे अलग रहा है कि इसकी लडाई सिर्फ और सिर्फ एक अकेली ईरोम की लडाई बन कर रह गई । इस मायने मे इसे एक अकेले सिपाही की जंग भी कहा जा सकता है । यह दीगर बात है कि सुर्खियों मे आने पर इसे सीमित जनसमर्थन भी मिलता रहा है । लेकिन पानी के बुलबुलों की तरह वह समर्थन जल्द ही कहां विलीन हो जाता था, पता नही । और फिर ईरोम झंडा पकडे अकेले ही दिखाई देती रहीं ।

अलग किस्म की इस यौध्दा ने 26 जुलाई, 2016 को यह घोषणा करके सभी को चौंका दिया है कि वह 9 अगस्त से अपना  16 साल से चला आ रहा अनशन खत्म करने जा रही हैं । यही नही, अनशन खत्म कर वह अपने प्रेमी डेसमंड  कौतिन्हों जिनसे वह ई मेल के माध्यम से संपर्क मे आयीं विवाह रचा कर मणिपुर की राजनीति मे सक्रिय रूप से हिस्सा लेकर अपनी इस मांग को एक नई दिशा देंगी

आफस्पा यानी आर्मड फोर्सेस स्पेशल एक्ट के खिलाफ 16 सालों से लडने वाली इस लौह महिला की इस घोषणा ने कई सवाल भी खडे किये हैं और इस लडाई को लेकर जनसमर्थन पर भी । अपने अनशन को खत्म करने के सवाल पर वह जब मीडिया को यह कहती हैं कि इस लडाई मे जनता की बेरूखी व सरकार के जिद्दीपन को लेकर वह बहुत मायूस हैं , तब कई और सवाल उठते हैं । आखिर ऐसा क्यों ? सरकार की उदासीनता तो समझ मे आती है लेकिन जनता का अपेक्षित सहयोग न मिलने की पीडा जरूर सोचने के लिए मजबूर करती है ।

इन सवालों के जवाब तलाशने के प्रयास से पहले थोडा पीछे देख लेना जरूरी है । दर-असल पूर्वोत्तर के राज्य आजादी के बाद से कई कारणों से ' समस्याग्र्स्त राज्य ' रहे हैं ।  उग्रवादी तत्वों से निपटने मे जब सेना को परेशानी महसूस होने लगी तो यह महसूस किया गया कि सेना को कुछ अधिक अधिकार देने से ही इनसे निपटा जा सकता है । ऐसे मे सरकार ने संसद मे  सशस्त्र बल विशेषाधिकार कानून पारित कर इसे उत्तर पूर्व के समस्याग्रस्त राज्यों मे लागू कर दिया । इस कानून से सेना को कुछ अतिरिक्त छूट मिल जाने से वह देशद्रोही व उग्रवादी तत्वों से प्रभावी तरीके से निपटने मे सफल हुई । लेकिन यह कानून बहुत जल्द विवादों के घेरे मे भी आ गया ।

2 नवम्बर 2000 को मणीपुर कस्बे के एक बस स्टाप मे असम राइफल के जवानों ने जिस तरह 10 लोगों को गोलियों से भून कर उनकी हत्या की थी, वह एक अभूतपूर्व घटना बनी । पूरे मणिपुर मे इस कानून के खिलाफ जनाक्रोश भडक गया । लोगों का मानना था कि इस नरसंहार मे सेना ने मासूम लोगों को गोलियों का निशाना बनाया जिसमे बच्चे , बूढे सभी थे । ईरोम जो उस समय सिर्फ 28 वर्ष की थीं इस घटना से इतना आहत हुईं कि इसके खिलाफ उन्होने भूख हडताल शुरू कर दी । लेकिन जैसा होता है सरकार ने इनकी मांग को उचित नही माना । ईरोम भी अपनी मांग से पीछे नही हटीं । इस बीच मानवाधिकार समर्थ्कों की भागीदारी ने  इसे अंतरराष/ट्रीय  चर्चा का विषय बना दिया । लेकिन सरकार ने कोई नरमी नही बरती और  ईरोम का यह अनशन भी लगातार चलता रहा । अब इस अनशन को खत्म करने की घोषणा ने कई सवाल खडे किये हैं ।

यहां गौरतलब यह है कि कभी भी ईरोम की इस मांग को व्यापक समर्थन नही मिल सका जैसा कि दूसरे जनांदोलनों के साथ होता है । इसका एक बडा कारण यह रहा है कि देश मे एक बडा वर्ग यह मानता है कि आज के हालातों मे सेना को इस विशेष अधिकार की सख्त जरूरत है । इसके अभाव मे सेना की धार कमजोर पडती है और अलगाववादी व देश विरोधी तत्व मजबूत हो जाते हैं । जम्मू कश्मीर मे भी ' आफस्पा ' लागू है और वहां भी इसका विरोध जब तब किया जाता है । लेकिन दूसरी तरफ लोग वहां अलगाववादियों के खून खराबे से भी वाकिफ हैं । यही कारण है कि सरकार, सेना और जनता का बहुत बडा वर्ग इसके समर्थन मे दिखाई देता है ।

इसके दुरूपयोग की खबरें भी चर्चा का विषय बनी हैं । कुछ मामलों मे फर्जी मुठभेडों के मामले सही भी पाये गये हैं । लेकिन यह अपवाद ही रहे हैं । आज के हालातों मे कश्मीर घाटी मे सेना को जिस चुनौती का सामना करना पड रहा है उसे देखते हुए लोग इस कानून के पक्ष मे खडे दिखाई दे रहे हैं । उग्रवाद की कुछ ऐसी ही कहानी पूर्वोत्तर राज्यों की भी है । लिहाजा इस कानून को सेना के लिए वहां जरूरी समझा जा रहा है ।

ईरोम के अनशन खत्म करने के पीछे सबसे बडा कारण व्यापक जनसमर्थन न मिलना ही रहा है । बहरहाल वह अपनी लडाई राजनीति के मंच से लडना चाहती हैं और इसके लिए मणिपुर चुनाव सबसे अच्छा मंच है । इसलिए यह कहना कि उन्होने अपनी लडाई खत्म कर दी है , यह गलत होगा । बल्कि यह लडाई के बीच एक मध्यांतर है । देखना है कि राजनीति मे जब वह स्वयं जनता के बीच होगीं  इस मुद्दे पर कितना समर्थन जुटा पाती हैं । 

गुरुवार, 7 जुलाई 2016

बरसात मेें घायल होता हिमालय क्षेत्र

मौसम की पहली बरसात ने ही केदारनाथ व बदरीनाथ पहुंचने के तमाम रास्ते बंद कर दिये | जगह जगह पहाड़ की चट्टाने टूट कर गिरने लगीं | ऐसा पहली बार नहीं है | बरसात के मौसम मे इसी तरह साल-दर-साल घायल होता हिमालय क्षेत्र आज हमारी उपलब्धियों के तमाम दावों को झुठलाने लगा है | साथ ही विकास नीतियों की खामियों को भी उजागर कर रहा है | वैसे तो पहाड़ की टूट फ़ूट प्रकृति का चक्र है लेकिन जिस तरह से इधर हाल के वर्षों से पहाड़ मे भू-स्खलन की घटनाएं बढी हैं, यह हमारे लिए खतरे का संकेत है | विडंबना तो यह है कि दूसरी तरफ़ हम पर्यावरण की रक्षा की बात करते नही थक रहे |
     अब तो स्थिति यह है कि थोडी सी बरसात मे ही पहाड़ दरकने लगे हैं | आवागमन का ठप होना तो बरसात के मौसम मे रोज की बात है | दरकते हुए पहाड़ इस बात का संकेत हैं कि पर्यावरणीय विनाश की सीमा अब खतरे के निशान को भी पार करने लगी है | इससे पर्वतीय विकास की मूलभूत सरकारी नीतियों तथा नजरिये पर एक प्रशनचिन्ह लग गया है | विकास की यह उल्टी चाल इस तथ्य को भी उजागर कर रही है कि आज पर्वतीय विकास के लिए धन नही वरन नियोजन की अधिक आवश्यक्ता है | साथ ही यह चेतावनी भी कि सिर्फ़ एक माडल के आधार पर पर्वतीय विकास की योजनाएं तैयार नही की जा सकती हैं | इसके लिए जरूरी है इस अंचल की भौगोलिक परिस्थितियों , तराइ-भावर, मध्य हिमालय व उच्च हिमालय श्रेणियों मे विभाजित कर योजनाएं बनाई जानी चाहिए |
     दर-असल आज घायल होते हिमालय क्षेत्र की इस पीडा के पीछे सरकारी गलत नीतियों तथा पर्यावरण के प्रति हमारी घोर उपेक्षा की एक लंबी कहानी है | कभी यह क्षेत्र अपनी वन सपंदा के लिए जाना जाता था |  लेकिन आज स्थिति यह है कि दूर दूर तक वन उजड चुके हैं | यहां तक कि गांवों मे चारे ईधन तक का संकट उपस्थित हो गया है | खनिज दोहन के लोभ ने भी पहाड़ की छाती पर गहरे घाव लगाए हैं | डायनामाइट विस्फ़ोट से कच्चे पडे पहाडों से अब मिट्टी निकल निकल कर बहने लगी है | और परिणामस्वरूप भू-स्खलन व भूक्ष्ररण की गति उत्तरोत्तर तेज हो रही है |
     विनाश की यह प्रकिया आज भी जल, जानवर और जडी बूटी की लूट, सडक और बांधों का क्रूरतापूर्ण निर्माण, निरन्तर हो रहे असंतुलित खनन आदि के रूप मे जारी है | यह विनाश जिस बिंदु पर पहुंचा है उसी का परिणाम है भू-स्खलन से टूटता पहाड़ और थोडी सी बरसात मे पहाड़ी नदी-नालों का ताडंव |
     दर-असल पहाड़ के शोषण की परम्परा एक शताब्दी पूर्व की औपनिवेशक शासकों की देन रही है | खास कर ईस्ट इंडिया कंपनी के काल खंड के दस्तावेजों को देखने से पता चलता है कि इनकी नजर यहां के प्राकृतिक संसाधनों पर थी | फ़्रांसिस ह्वाइट ( 1837 ) के यात्रा विवरणों मे मसूरी की पहाडियों मे चूना खदाने होने का उल्लेख मिलता है | लेकिन काफ़ी समय तक इन्हे कोई नुकसान नही हुआ | य्हां तक की 1883 तक इनसे कोई छेड़छाड़ नही की गई |
     लेकिन इसके बाद वनों के शोषण का काला अध्याय शुरू हुआ | वनों का अंधाधुंध दोहन कर रेलवे स्लीपर बनाये जाने लगे | व्यापारिक द्र्ष्टिकोण से ही चीड़ के वनों का विस्तार किया गया | इससे लीसा निकालने की प्रकिया भी तभी शुरू हुई | एक तरफ़ व्यापारिक उद्देश्यों के लिए वनों का निर्मम दोहन हुआ दूसरी तरफ़ कृषि योग्य भूमि के विस्तार के लिए भी वनों को साफ़ किया जाने लगा परिणाम्वरूप 1930 के आसपास से हिमालय क्षेत्र मे भू-स्खलन और बाढ की घटनाएं शुरू हो गईं |
     1940 के बाद खनिज खनन का कार्य शुरू हुआ | खुलेआम डायनामाइटों का प्रयोग शुरू हुआ | खनन कार्य के फ़लस्वरूप भू-स्खलन की गति और तेज हो गई | यह सब आजादी के पूर्व की बात है परन्तु हिमालय क्षेत्र का दुर्भाग्य यह रहा कि स्वतंत्रता के बाद भी उसके प्रति शासकों का द्र्ष्टिकोण नही बदला | हमारे नीति निर्माता ऐसी विकास योजनाएं बनाने मे असफ़ल रहे जिनसे पर्यावरण के साथ पहाड़ की अर्थव्यवस्था मे भी सुधार होता |
     60 के दशक से विकास के नाम पर सड्कों का निर्माण कार्य शुरू हुआ | इसका परिणाम यह निकला कि ठेकेदारों ने पहाड़ के जंगलों तथा खेतों के साथ खूब मनमानी की | रही सही कसर सरकारी बिजली परियोजनाओं ने पूरी कर दी | टिहरी जैसा विशालकाय बांध बनाना वह भी हिमालय क्षेत्र में, हमारी गलत नीतियों का सबसे अच्छा उदाहरण है |
     बहरहाल इन तमाम गलतियों का परिणाम आज सामने है | परन्तु इससे बडी गलती यह रही कि समय समय पर समितियों की चेतावनियों को बार बार नजर-अंदाज किया जाता रहा जो आज भी जारी है | इस हिमालय क्षेत्र के भू-स्खलन के कारणों और पर्यावरण के असंतुलन पर न जाने कितने  अध्ययन  किए गये और सिफ़ारिशें सरकार को दी गईं लेकिन सभी अलमारियों मे धूल खाती रहीं | उन्हें कभी गंभीरता से लिया ही नही गया | बद्रीनाथ धाम के बिगडते पर्यावरण पर दी गई चेतावनी, नैनीताल मे पहाड धसकने की डा नौटियाल की शंका को भी नजर-अंदाज कर दिया गया |
     दर-असल हिमालय की पहाड़ियां कच्ची और नई हैं और इसलिए संवेदनशील भी | इनके साथ थोड़ी सी लापरवाही भी घातक सिध्द हो सकती है | इधर कुछ समय से उत्तराखंड मे टूरिज्म के विकास को गति मिली है | सड्कों का जाल बिछा है और पहाडियों पर बढते वाहनों का दवाब निरंतर बढ रहा है | इससे भी जरा सी बरसात भू-स्खलन को न्योता देने लगी है | आज यहां पांच सितारा पर्यटन की अवधारणा के तहत तमाम होटल पूरी सज धज के साथ सडक किनारे स्वागत के लिए खडे हैं | इनसे इन पहाडियों पर दवाब लगातार बढता जा रहा है | गाड़ियों का आवागमन पिछ्ले वर्षों  की तुलना मे कई गुना बढ गया है | लेकिन इन सब बातों से यहां किसी को कोई लेना देना नही |
     आज जरूरत इस बात की है कि पहाड़ की योजनाएं यहां के भौगोलिक रचना के हिसाब से संतुलित व सुनियोजित हों | आर्थिक विकास हेतु उठाये जा रहे किसी भी कदम से पूर्व पर्यावरणीय पहलू पर भी उचित ध्यान दिया जाए | अन्यथा  इस तरह तो एक दिन पहाड का अस्तित्व ही खतरे मे पड जाऐगा |
    
एल.एस.बिष्ट,

11/508, इंदिरा नगर, लखनऊ-16