मंगलवार, 20 सितंबर 2016

उबरना ही होगा इस लाचारगी से


इस बार उरी सीमा पर गोलियों और बम की आवाजों से किसी को सिहरन नही होती ।लेकिन जब यही आवाजें घर के अंदर जहां हम अपने को सबसे ज्यादा सुरक्षित समझते हैं सुनाई देती हैं तो डरना स्वाभाविक ही है हमारे सुरक्षित समझे जाने वाले सैन्य बेस पर चार आतंकी आए और फिर हमे घाव दे गये सोते हुए हमारे 18 जवानों को अकाल मृर्‍त्यु का ग्रास बनना पडा । अब तो लगता है कि हम इन घावों के अभ्यस्त से होते जा रहे हैं इन घावों से रिसते खून को येनकेन रोकने के लिए मानो हम दवा-पट्टी लेकर हमेशा तैयार बैठे हों
आतंकी घटनाओं मे अकाल मृत्यु के ग्रास बने अपने जवानों, अफसरों और नागरिकों को " शहीद " का दर्जा दे मानो फिर मौत की अगली दस्तक का इंतजार करने लगते हैं रोज--रोज होने वाले यह धमाके और फिर दिल को चीर देने वाली चीखों को मानो हम अपनी नियति मान बैठे हैं लगता है हर ऐसे हादसे के बाद लाशों को गिनने के लिए हम अभिशप्त हैं एक सन्नाटा सा पसरा है जहां किसी को कुछ सूझ नही रहा

इस घटना के बाद हमेशा की तरह उन्हीं शब्दों को फिर दोहराया जाने लगा है जो बार बार कहे जाने के बाद अपनी धार खो चुके हैं । अब तो जनसामान्य को भी महसूस होने लगा है कि यह चुने हुए शब्द मात्र समय को टालने व जनता के आक्रोश को ठंडा करने के हथियार बन कर रह गये हैं । अब फिर कहा जाने लगा है कि पाकिस्तान को बेनकाब किया जायेगा, उसे अलग थलग करने के सभी प्रयास किये जायेंगे, उसे एक आतंकवादी देश घोषित करवाने के प्र्यास जारी रहेंगे आदि आदि । लेकिन लोग इन सभी शब्दों के खोखलेपन को देख और समझ चुके हैं ।

भारी दवाब के बीच सेना प्रमुख दलवीर सिंह ने कहा है कि हम बदला जरूर लेंगे लेकिन समय और स्थान का चुनाव भी हम करेंगे । कुछ ऐसे ही शब्द पठानकोट हमले के बाद भी कहे गये थे । देश की जनता कुछ सख्त कार्रवाही देखना चाहती है जो कहीं नही दिखाई दे रही । देर-सबेर इस प्रवत्ति का दुष्प्रभाव सेना के मनोबल पर भी पडेगा ।

दर-असल गौर से देखें तो पाकिस्तान प्रायोजित यह आतंकवाद हमारी मानसिक कमजोरी पर बार बार चोट कर हमे आहत कर रहा है वह जांनता है कि अतीत की सैनिक असफलताएं अब इतिहास बन गई हैं 1965 हो या फिर 1971 या करगिल युध्द पारंपरिक युध्द शैली मे उसे मुंह की खानी पडी है आज के हालातों मे भी उसे शिकस्त दिवारों पर लिखी साफ दिखाई दे रही है लेकिन एक परमाणु सम्पन देश होने का जो तमगा उसने लगा दिया है, इससे वह अपने को ऊंचाई पर खडा देख रहा है
बार बार भारत को घाव देने के बाबजूद भारतीय सेना ने सीमाओं की हद नही लांघी इसे वह अपनी एक उपलब्धी समझने लगा है यहां तक कि करगिल युध्द मे भी भारतीय सेनाएं अपनी ही जमीन पर खडी थीं यह उसने स्वयं नंगी आंखों से देखा है
कहीं कहीं परमाणु अस्त्रों को वह भारत की लाचारगी का कारण मानने लगा है समय समय पर परमाणु युध्द की धमकी देने मे भी उसे कोई हिचकिचाहट नहीं भारतीय पक्ष को देखें तो शायद लाचारगी का यही कारण समझ मे भी आता है अन्यथा दुनिया की एक बेहतरीन विशाल सेना वाले देश का नित घाव खाना और आहत होना समझ से परे है
इसमे अब कोई संदे नही कि भारत को अगर इस प्रायोजित आतंकवाद को रोकना है तो पडोसी की इस धमकी से पार पाना ही होगा ऐसा भी नही कि युध्द रण्नीतियों की किताबों मे इसका कोई जवाब ही हो महाभारतकालीन चक्र्व्यूह जिसे एक अजेय व्यूह रचना समझा जाता रहा उसको भी भेदने की कला अर्जुन को मालूम थी इसी तरह आधुनिक युध्द कौशल मे भी ऐसा संभव है कि परमाणु शस्त्रों का जखीरा सिर्फ देखने की चीज बन कर रह जाए और उसका उपयोग ही संभव हो सके आक्रामक युध्द शैली अनेक संभावनाओं के रास्ते खोलती है वैसे भी गांधी के पदचिन्हों पर चलने वाले इस देश को अब यह समझ लेना चाहिए कि कभी चीन के राष्ट्र्पति माउत- -तुंग ने यूं ही नही कहा था कि " पीस क्म्स फ्रोम बैरल आफ गन " यानी शांति बदूंक की नाल से आती है आज वह देश सिर्फ समृध्दि के ऊंचे पायदान पर खडा है बल्कि दुनिया की एक ताकत भी है
बहरहाल अब समय गया है कि आतंक की इस दहशत से मुक्ति के लिए नितांत नई संभावनाओं पर विचार करें अगर ऐसा ही होता रहा तो आतंक के खिलाफ हम एक " कमजोर राष्ट्र " समझे जाने लगेंगे और फिर ऐसी घटनाएं कुछ और ज्यादा और भयावह होगीं । इस संदर्भ मे जरूरी है कि भारत दूसरे देशों से कुछ उम्मीद करने के बजाय स्वंय के बल पर कुछ ठोस करने का प्र्यास करे । आखिर देश की सुरक्षा हमारी जिम्मेदारी है दुनिया के अन्य देशों की नही । अगर समय रहते न किया गया तो आतंक का काला साया पूरे देश को अपनी गिरफ्त मे ले लेगा और तब हम अपने को लाचारगी की स्थिति मे देख रहे होंगे



शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

सियासत के यह राबिनहुड





भागलपुर जेल से रिहा हुए बाहुबली नेता शहाबुद्दीन की रिहाई ने बिहार  की राजनीति को एक बार फिर गरमा दिया है । इस सियासी घमासान मे सत्तारूढ जेडीयू-आर.जेडी सरकार मे उथल पुथल मची है । बात सिर्फ इतनी भर नही । बल्कि  जेल से छूटते ही शहाबुद्दीन के इस वक्तब्य ने कि मुख्यमंत्री नीतीश कुमार तो " परिस्थितिवश मुख्यमंत्री " हैं जो जनता के नही, गठबंधन के नेता हैं" राजनीतिक पारे को उच्चतम बिंदु तक पहुंचा दिया है । किसी भी मुख्यमंत्री को यह बात क्यों पसंद आने लगी । अब खबर है कि नीतीश सरकार जमानत के खिलाफ उच्चतम न्यायालय जाने का मन बना रही है।

दर-असल इस बाहुबलि नेता की रिहाई इसलिए भी चर्चा और विरोध का विषय बनी हुई है क्योंकि जो कांड हुआ उसने बिहार सहित पूरे देश को हिला कर रख दिया था । 2004 मे 16 अगस्त को सीवान के एक व्यापारी चंद्रकेश्वर उर्फ चंदा बाबू के दो बेटों को अपहरण के बाद वीभत्स तरीके से तेजाब से नहला कर और उनके शरीर के टुकडे कर ह्त्या कर दी गई थी । कहा जाता है कि सबसे बडे बेटे राजीव रोशन को अपने भाईयों की वीभत्स मौत देखने के लिए मजंबूर किया गया और बाद मे एक्मात्र गवाह् बडे बेटे को सुनवाई के दौरान 16 जून 2014 को गोली मार कर ह्त्या कर दी गई ।

इसके अलावा सीवान मे पत्रकार राजदेव रंजन की दर्दनाक तरीके से हत्या के शक की सुई भी शहाबुद्दीन से ही जुडी थी । यह तो वह घटनाएं हैं जो देशभर मे मीडिया व राजनीतिक गलियारों मे चर्चा का विषय बनीं तथा जिन पर खूब सियासी रोटियां सेंकी गईं । लेकिन इस बाहुबली नेता के खाते मे तो न जाने कितनी हत्याओं, अपहरण व फिरौती के मामले दर्ज हैं जिनका हिसाब रखना भी आसान नहीं ।

बहरहाल बिहार की राजनीति मे शहाबुद्दीन की रिहाई क्या गुल खिलायेगी यह तो समय ही बतायेगा लेकिन इतना अवश्य है कि आतंक का प्रर्याय बने इस नेता ने देश के लोकतंत्र, न्यायापालिका व सरकारी रवैये पर जरूर गंभीर सवाल उठाये हैं । यही नही, मौजूदा राजनीतिक संस्कृर्ति मे अपराध व अपराधियों के बढते वर्चस्व पर भी सोचने के लिए मजबूर किया है । हम स्वीकार करें या न करें इस घटना ने देश के राजनैतिक भविष्य की तस्वीर को भी सामने रखा है ।

गौरतलब है कि आज हम जिस शहाबुद्दीन को राजनीति के मंच पर एक आतंक के रूप मे देख रहे हैं, वह 80 के दशक मे छोटे मोटे अपराध करने वाला एक छुटभैय्या अपराधी भर था । लेकिन किस तरह राजनीति ने उसे अपराध की दुनिया मे एक चमकता सितारा बना दिया, उसकी एक अलग ही कहानी है । यह कहानी देश की राजनीति के उस कुरूप चेहरे को सामने लाती है जिसे अब स्वीकार कर लिया गया है । वोट राजनीति के लोभ ने एक साधारण अपराधी को रातों रात आर.जे.डी का एक ऐसा ताकतवर नेता बना दिया जिसके आगे पूरा प्रशासनिक तंत्र नतमस्तक हो गया । क्या यह कम आश्चर्यजनक नही कि आज इस बाहुबलि के नाम से लोग सीवान को जानते हैं । उसके इजाजत के बिना यहां एक पत्ता भी नही हिल सकता । बडे बडे पुलिस अधिकारी उसे सलाम बजा कर अपनी नौकरी करते हैं ।

आज सवाल सिर्फ शहाबुद्दीन का नही है । ऐसे न जाने कितने अपराधी राजनीति की छतरी तले देश के प्रशासनिक तंत्र को चुनौती दे रहे है ।  आखिर क्यों हमारी ससंद व विधानसभाएं अपराधी तत्वों की शरणगाह बनती जा रही हैं । दरअसल हमने ईमानदारी से स्वंय के गिरेबां में झांकने का प्रयास कभी नही किया । कहीं ऐसा तो नही कि जाने- अनजाने इसमे हमारी भी भागीदारी रही हो ।
दरअसल कई बार हम अपने स्वार्थ में व्यापक सामाजिक हितों की अनदेखी कर देते हैं । हमारी सोच इतनी संकीर्ण हो जाती है कि हमे सिर्फ अपने जिले, शहर या मुहल्ले का ही हित दिखाई देता है और राबिनहुड जैसे दिखने वाले माफियों, गुंडों व बदमाशों को इसका लाभ मिलता है । अगर कोई अपराधी तत्व हमारे मुहल्ले की सड्कों व नालियों आदि का काम करवा लेता है और हमारे मुहल्ले का निवासी होने या किसी अन्य प्रकार के जुडाव से हमारे काम करवा लेता है तो हम उसके पक्ष मे आसानी से खडे हो जाते हैं । यहां हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि समाज के हित मे इसे ससंद या विधानसभा के लिए चुनना इस लोकतंत्र के भविष्य के लिए घातक होगा । ऐसे बहुत से उदाहरण मिल जायेगें जहां समाज की नजर मे एक अपराधी,  मोहल्ले या शहर का "भैय्या " बन चुनाव मे जीत हासिल कर लेता है । दरअसल अपने तक सीमित हमारी सोच ऐसे लोगों का काम आसान करती है ।

हमारी इस सोच का इधर कुछ वर्षों मे व्यापक प्रसार हुआ है राजनीतिक अपराधीकरण मे हमारी यही सोच कुछ गलत लोगों को ससंद व विधानसभाओं मे पहुंचाने मे सहायक रही है । यही कारण कि ऐसे कई नाम भारतीय राजनीति के क्षितिज पर हमेशा रहे हैं । जिन्हें समाज का एक बडा वर्ग तो अपराधी , माफिया या बदमाश मानता है लेकिन अपने क्षेत्र से वह असानी से जीत हासिल कर सभी को मुंह चिढाते हैं ।
अब अगर हमे इन बाहुबलियों, माफियों, गुंडों व बदमाशों को रोकना है तो अपने संकीर्ण हितों की बलि देनी होगी । व्यक्ति का चुनाव समाज व देश के व्यापक हित मे सोच कर किया जाना चाहिए । अगर आपके लिए भैय्या बना उम्मीदवार समाज के बहुसंख्यक लोगों के लिए एक अपराधी तत्व है तो उसे आपको भी अपराधी ही मानना होगा । अन्यथा एक दिन यह भैय्ये लोकतंत्र  के चेहरे को पूरी तरह से बदरंग बना देगें ।